" सत्ता और राजनीतिक व्यवस्था के संबंध. "
श्री सतीश गर्ग जी,
आपकी पोस्ट पढने के बाद मेरे भी विचार में आया कि किसी दल को त्यागकर कांग्रेस दल का सदस्य बनने की प्रक्रिया पर आजकल लक्ष्मण रेखा सी खींची दिखाई दे रही है ।
अलबत्ता अपवाद स्वरूप देश में इक्का-दुक्का लोगों ने इस रेखा को भी पार किया है ।
यहां यह उल्लेख करना योग्य होगा कि :--
" राजनीति में सत्ता पक्ष को कब तक कोई समर्थन देगा और कब वही समर्थक साथी तख्ता पलटने एक हो जाएंगे कहना कठीन है । इसी कारण डगर पार नही होती और यही राजनिती की सडक का कठीनतम अवरोधक है । "
हमेशा अच्छे काम के वातावरण से सत्ता की स्थिरता होना चाहिये, यह बात हर कोई सकारात्मक विचारकर्ता चाहता है । किंतु राजनिति में कई बार उलटे ही परिणामों की अनुभूति देश को हुई है ।
(1) प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी जी के जमाने में अधिकांश दल अटल जी के साथ थे, महंगाई स्थिर थी महंगाई नही बढी, सारी वस्तुएं बाजारों में उपलब्ध थी । ऐतिहासिक प्रगतिशील कामों का विश्वसनीय संचालन भी होता दिख रहा था, सरकार पर जनता का अटूट स्नेह और विश्वास सा प्रतीत हो रहा था, विश्वस्तर पर भारत की साख बढी थी, " इंडिया शायनिंग " से वातावरण गूंज रहा था ।
(2) प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी जी की धाक थी, सर्वत्र उनके नारे लग रहे थे, यहां तक की " इंदिरा इज इंडिया एण्ड इंडिया इज इंदिरा " तक की आवाजे गूंज रही थी । कोई इंदिरा जी के विरोध में नही बोल रहा था । एक समय घोर विरोधी अटल बिहारी वाजपेयी जी ने इंदिरा जी के बुलंद कामों को नमन कर उनका स्तुति भरा वक्तव्य दिया था ।
विडंबना यही है कि राजनिती में भविष्य का कभी कोई ठिकाना नहीं, और इसी कारण दोनो धाकड प्रधानमंत्री सत्ता के साथ स्थिर नही रह सके, इमरजेंसी के बाद इंदिरा जी सत्ता से बाहर हुई और अटल जी का " इंडिया शायनिंग " डार्क हो गया, अटलजी सत्ता से बाहर हो गए थे ।
सतीश गर्ग जी और देशवासियों,
देश में अच्छे शासक चुनावी सांठगांठ के फेर में सत्ता विमुख हो जाए, यह अच्छी बात नहीं लगती, वेदना होती है और इस कारण प्रचलित पद्धति को बदलने की जरूरत प्रतीत होती है । क्या प्रबुद्ध नागरिक इस दिशा में कदम बढाएंगे ???
..... चंद्रकांत वाजपेयी
ज्येष्ठ नागरिक एवं गैरराजनीतिक सामाजिक कार्यकर्ता, औरंगाबाद (महा.)
ई-मेल : chandrakantvjp@gmail.com
श्री सतीश गर्ग जी,
आपकी पोस्ट पढने के बाद मेरे भी विचार में आया कि किसी दल को त्यागकर कांग्रेस दल का सदस्य बनने की प्रक्रिया पर आजकल लक्ष्मण रेखा सी खींची दिखाई दे रही है ।
अलबत्ता अपवाद स्वरूप देश में इक्का-दुक्का लोगों ने इस रेखा को भी पार किया है ।
यहां यह उल्लेख करना योग्य होगा कि :--
" राजनीति में सत्ता पक्ष को कब तक कोई समर्थन देगा और कब वही समर्थक साथी तख्ता पलटने एक हो जाएंगे कहना कठीन है । इसी कारण डगर पार नही होती और यही राजनिती की सडक का कठीनतम अवरोधक है । "
हमेशा अच्छे काम के वातावरण से सत्ता की स्थिरता होना चाहिये, यह बात हर कोई सकारात्मक विचारकर्ता चाहता है । किंतु राजनिति में कई बार उलटे ही परिणामों की अनुभूति देश को हुई है ।
(1) प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी जी के जमाने में अधिकांश दल अटल जी के साथ थे, महंगाई स्थिर थी महंगाई नही बढी, सारी वस्तुएं बाजारों में उपलब्ध थी । ऐतिहासिक प्रगतिशील कामों का विश्वसनीय संचालन भी होता दिख रहा था, सरकार पर जनता का अटूट स्नेह और विश्वास सा प्रतीत हो रहा था, विश्वस्तर पर भारत की साख बढी थी, " इंडिया शायनिंग " से वातावरण गूंज रहा था ।
(2) प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी जी की धाक थी, सर्वत्र उनके नारे लग रहे थे, यहां तक की " इंदिरा इज इंडिया एण्ड इंडिया इज इंदिरा " तक की आवाजे गूंज रही थी । कोई इंदिरा जी के विरोध में नही बोल रहा था । एक समय घोर विरोधी अटल बिहारी वाजपेयी जी ने इंदिरा जी के बुलंद कामों को नमन कर उनका स्तुति भरा वक्तव्य दिया था ।
विडंबना यही है कि राजनिती में भविष्य का कभी कोई ठिकाना नहीं, और इसी कारण दोनो धाकड प्रधानमंत्री सत्ता के साथ स्थिर नही रह सके, इमरजेंसी के बाद इंदिरा जी सत्ता से बाहर हुई और अटल जी का " इंडिया शायनिंग " डार्क हो गया, अटलजी सत्ता से बाहर हो गए थे ।
सतीश गर्ग जी और देशवासियों,
देश में अच्छे शासक चुनावी सांठगांठ के फेर में सत्ता विमुख हो जाए, यह अच्छी बात नहीं लगती, वेदना होती है और इस कारण प्रचलित पद्धति को बदलने की जरूरत प्रतीत होती है । क्या प्रबुद्ध नागरिक इस दिशा में कदम बढाएंगे ???
..... चंद्रकांत वाजपेयी
ज्येष्ठ नागरिक एवं गैरराजनीतिक सामाजिक कार्यकर्ता, औरंगाबाद (महा.)
ई-मेल : chandrakantvjp@gmail.com
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